भारतीय संस्कृति के वैज्ञानिक स्वरूप पर ऐतिहासिक शोध : डॉ. शरद चतुर्वेदी की नवीनतम कृति “सनातन संस्कृति एवं अध्यात्म में वैज्ञानिक अनुसंधान” का हुआ विमोचन, विद्वतजनों में हर्ष
नई दिल्ली/लखनऊ: भारतीय चिंतन, अध्यात्म और संस्कृति को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पुनर्परिभाषित करती एक महत्त्वपूर्ण कृति “सनातन संस्कृति एवं अध्यात्म में वैज्ञानिक अनुसंधान” का हाल ही में लोकार्पण हुआ। इस पुस्तक के लेखक 80 वर्षीय वयोवृद्ध विद्वान डॉ. शरद चतुर्वेदी हैं, जो दशकों से भारतीय दर्शन, संस्कृति और इतिहास के गंभीर अध्येता रहे हैं। उनके द्वारा रचित यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति के वैज्ञानिक पक्ष को उजागर करने वाला एक दुर्लभ प्रयास है, जिसे विद्वत समुदाय और पाठकों से भरपूर सराहना मिल रही है।
समीक्षक डॉ. गोपाल गोयल (संपादक, मुक्तिचक्र) द्वारा दी गई विस्तृत समीक्षा के अनुसार, यह पुस्तक केवल धार्मिक या भावनात्मक दृष्टिकोण को नहीं, बल्कि भारतीय परंपराओं में अंतर्निहित वैज्ञानिकता को तर्क और प्रमाण के साथ प्रस्तुत करती है। डॉ. चतुर्वेदी ने इतिहास, भाषाविज्ञान, समाजशास्त्र और साहित्य के अंतर्संबंधों के माध्यम से यह स्थापित किया है कि भारतीय सभ्यता सदैव से वैज्ञानिक सोच की पोषक रही है।
पुस्तक की भाषा शैली विद्वत्तापूर्ण होने के साथ-साथ सुगम और संरचित है, जिससे यह आम पाठकों को भी आकर्षित करती है। इसमें वर्णित उदाहरण – चाहे वह वेदों के उद्धरण हों, शिलालेख हों या वास्तुकला की विशेषताएँ – सभी गहन शोध और गंभीर अध्ययन पर आधारित हैं। कहीं-कहीं पश्चिमी और भारतीय सोच के तुलनात्मक विश्लेषण भी देखने को मिलते हैं, जो यह दर्शाते हैं कि भारत की बौद्धिक परंपरा कितनी समृद्ध और प्रगतिशील रही है।
मुख्य विशेषताएँ:
भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिकता पर मौलिक विवेचना
ऐतिहासिक और साहित्यिक प्रमाणों का गहन समावेश
समसामयिक और शाश्वत दृष्टिकोणों का संतुलन
शोधार्थियों, शिक्षकों और संस्कृति प्रेमियों के लिए उपयोगी
कुछ सीमाएँ भी रहीं उजागर:
हालाँकि समीक्षा में यह भी उल्लेख किया गया कि कुछ अंशों में प्रयुक्त अत्यधिक विद्वतापूर्ण भाषा साधारण पाठकों के लिए जटिल हो सकती है। इसके अतिरिक्त, संदर्भ ग्रंथों और अनुक्रमणिका को और अधिक विस्तार दिया जाना समीचीन होता।
निष्कर्ष के रूप में, यह कहा जा सकता है कि “सनातन संस्कृति एवं अध्यात्म में वैज्ञानिक अनुसंधान” न केवल एक पुस्तक है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति के पुनराविष्कार का दस्तावेज़ है। यह कृति हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हुए यह भी बताती है कि सनातन परंपरा मात्र एक आस्था नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक सोच की पराकाष्ठा है।
यह पुस्तक निःसंदेह एक संग्रहणीय शोधप्रबंध है, जिसे हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो भारत की सांस्कृतिक आत्मा को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझना चाहता है।
रिपोर्ट: हिंद लेखनी न्यूज़
संपर्क: 9
838625021 (डाॅ. गोपाल गोयल)